भारतीय दण्ड संहिता, 1860
(1860 का अधिनियम संख्यांक 45)1
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उद्देशिका-- [भारत] के लिए एक साधारण दण्ड संहिता का उपबंध करना समीचीन है; अत: यह
निम्नलिखित रूप में अधिनियमित किया जाता है :--
1. संहिता का नाम और उसके प्रवर्तन का विस्तार--यह अधिनियम भारतीय दण्ड संहिता कहलाएगा,
और इसका 3[विस्तार 4[जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय] सम्पूर्ण भारत पर होगा ] ।
2. भारत के भीतर किए गए अपराधों का दण्ड--हर व्यक्ति इस संहिता के उपबन्धों के प्रतिकूल हर
कार्य या लोप के लिए जिसका वह 5[भारत] 6।।। के भीतर दोषी होगा, इसी संहिता के अधीन दण्डनीय
3. भारत से परे किए गए किन्तु उसके भीतर विधि के अनुसार विचारणीय अफराधों का दण्ड--5[भारत]
से परे किए गए अपराध के लिए जो कोई व्यक्ति किसी 7[भारतीय विधि] के अनुसार विचारण का पात्र
हो, 8[भारत] से परे किए गए किसी कार्य के लिए उससे इस संहिता के उपबन्धों के अनुसार ऐसा बरता
जाएगा, मानो वह कार्य 5[भारत] के भीतर किया गया था ।
9[4. राज्यक्षेत्रातीत अपराधों पर संहिता का विस्तार--इस संहिता के उपबंध--
भारतीय दंड संहिता का विस्तार बरार विधि अधिनियम, 1941 (1941 का 4) द्वारा बरार पर किया गया है और इसे
निम्नलिखित स्थानों पर प्रवॄत्त घोषित किया गया है :--
संथाल परगना व्यवस्थापन विनियम (1872 का 3) की धारा 3 द्वारा संथाल परगनों पर ;
पंथ पिपलोदा, विधि विनियम, 1929 (1929 का 1) की धारा 2 तथा अनुसूची द्वारा पंथ पिपलोदा पर ;
खोंडमल विधि विनियम, 1936 (1936 का 4) की धारा 3 और अनुसूची द्वारा खोंडमल जिले पर ;
आंगूल विधि विनियम, 1936 (1936 का 5) की धारा 3 और अनुसूची द्वारा आंगूल जिले पर ;
इसे अनुसूचित जिला अधिनियम, 1874 (1874 का 14) की धारा 3 (क) के अधीन निम्नलिखित जिलों में प्रवॄत्त
घोषित किया गया है, अर्थात््:--
संयुक्त प्रान्त तराई जिले--देखिए भारत का राजपत्र (अंग्रेजी), 1876, भाग 1, पॄ0 505, हजारीबाग, लोहारदग्गा के
जिले [(जो अब रांची जिले के नाम से ज्ञात हैं,--देखिए कलकत्ता राजपत्र (अंग्रेजी), 1899, भाग 1, पॄ0 44 और मानभूम
और परगना] । दालभूम तथा सिंहभूम जिलों में कोलाहल--देखिए भारत का राजपत्र (अंग्रेजी), 1881, भाग 1, पॄ0 504 ।
उपरोक्त अधिनियम की धारा 5 के अधीन इसका विस्तार लुशाई पहाड़ियों पर किया गया है--देखिए भारत का राजपत्र
(अंग्रेजी), 1898, भाग 2, पॄ0 345 ।
इस अधिनियम का विस्तार, गोवा, दमण तथा दीव पर 1962 के विनियम सं0 12 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा ;
दादरा तथा नागार हवेली पर 1963 के विनियम सं0 6 की धारा 2 तथा अनुसूची 1 द्वारा ; पांडिचेरी पर 1963 के विनियम
सं0 7 की धारा 3 और अऩुसूची 1 द्वारा और लकादीव, मिनिकोय और अमीनदीवी द्वीप पर 1965 के विनियम सं0 8 की
धारा 3 और अनुसूची द्वारा किया गया है ।
“ब्रिटिश भारत” शब्द अनुक्रमशः भारतीय स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि
अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के अधिनियम सं0 3 को धारा 3 और अनुसूची द्वारा प्रतिस्थापित किए गए हैं ।
मूल शब्दों का संशोधन अनुक्रमशः 1891 के अधिनियम सं0 12 की धारा 2 और अनुसूची 1, भारत शासन (भारतीय विधि
अनुकूलन) आदेश, 1937, भारतीय स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि अनुकूलन
आदेश, 1950 द्वारा किया गया है ।
1951 के अधिनियम सं0 3 को धारा 3 और अनुसूची द्वारा “भाग ख राज्यों को छोड़कर” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
“उक्त राज्यक्षेत्र” मूल शब्दों का संशोधन अनुक्रमशः भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937, भारतीय
स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के
अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा किया गया है ।
1891 के अधिनियम सं0 12 की धारा 2 और अनुसूची 1 द्वारा “पर या 1861 की मई के उक्त प्रथम दिन के पश्चात्” शब्द
भारतीय शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937 द्वारा “सपरिषद् भारत के गर्वनर जनरल द्वारा पारित विधि” के
स्थान पर प्रतिस्थापित ।
“उक्त राज्यक्षेत्रों की सीमा” मूल शब्दों का संशोधन अनुक्रमशः भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937,
भारतीय स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के
अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा किया गया है ।
1898 का अधिनियम सं0 4 की धारा 2 द्वारा मूल धारा के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
1[(1) भारत के बाहर और परे किसी स्थान में भारत के किसी नागरिक द्वारा ;
(2) भारत में रजिस्ट्रीकॄत किसी पोत या विमान पर, चाहे वह कहीं भी हो किसी व्यक्ति द्वारा,
किए गए किसी अपराध को भी लागू है ।]
स्पष्टीकरण--इस धारा में “अपराध” शब्द के अन्तर्गत 2[भारत] से बाहर किया गया ऐसा हर कार्य
आता है, जो यदि 5[भारत] में किया जाता तो, इस संहिता के अधीन दंडनीय होता ।
4।।। क. 5[जो 6[भारत का नागरिक है]] उगांडा में हत्या करता है । वह 5[भारत] के किसी स्थान में,
जहां वह पाया जाए, हत्या के लिए विचारित और दोषसिद्द किया जा सकता है ।
8[5. कुछ विधियों पर इस अधिनियम द्वारा प्रभाव न डाला जाना--इस अधिनियम में की कोई बात
भारत सरकार की सेवा के आफिसरों, सैनिकों, नौसैनिकों या वायु सैनिकों द्वारा विद्रोह और अभित्यजन
को दण्डित करने वाले किसी अधिनियम के उपबन्धों, या किसी विशेष या स्थानीय विधि के उपबन्धों, पर
6. संहिता में की परिभाषाओं का अपवादों के अध्यधीन समझा जाना--इस संहिता में सर्वत्र, अपराध
की हर परिभाषा, हर दण्ड उपबंध और हर ऐसी परिभाषा या दण्ड उपबंध का हर दृष्टांत, “साधारण
अपवाद” शीर्षक वाले अध्याय में अन्तर्विष्ट अपवादों के अध्यधीन समझा जाएगा, चाहे उन अपवादों को
ऐसी परिभाषा, दण्ड उपबंध या दृष्टांत में दुहराया न गया हो ।
(क) इस संहिता की वे धाराएं, जिनमें अपराधों की परिभाषाएं अन्तर्विष्ट हैं, यह अभिव्यक्त नहीं करती कि
सात वर्ष से कम आयु का शिशु ऐसे अपराध नहीं कर सकता, किन्तु परिभाषाएं उस साधारण अपवाद के अध्यधीन
समझी जानी हैं जिसमें यह उपबन्धित है कि कोई बात, जो सात वर्ष से कम आयु के शिशु द्वारा की जाती है,
(ख) क, एक पुलिस आफिसर, वारण्ट के बिना, य को, जिसने हत्या की है, पकड़ लेता है । यहां क सदोष
परिरोध के अपराध का दोषी नहीं है, क्योंकि वह य को पकड़ने के लिए विधि द्वारा आबद्ध था, और इसलिए यह
मामला उस साधारण अपवाद के अन्तर्गत आ जाता है, जिसमें यह उपबन्धित है कि “कोई बात अपराध नहीं है जो
किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाए जो उसे करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध हो ।
7. एक बार स्पष्टीकॄत पद का भाव--हर पद, जिसका स्पष्टीकरण इस संहिता के किसी भाग में किया
गया है, इस संहिता के हर भाग में उस स्पष्टीकरण के अनुरूप ही प्रयोग किया गया है ।
8. लिंग--पुलिंग वाचक शब्द जहां प्रयोग किए गए हैं, वे हर व्यक्ति के बारे में लागू हैं, चाहे नर हो
9. वचन--जब तक कि संदर्भ से तत्प्रतिकूल प्रतीत न हो, एकवचन द्योतक शब्दों के अन्तर्गत
बहुवचन आता है, और बहुवचन द्योतक शब्दों के अन्तर्गत एकवचन आता है ।
10. “पुरुष”। “स्त्री”--“पुरुष” शब्द किसी भी आयु के मानव नर का द्योतक है ; “स्त्री” शब्द किसी
भी आयु की मानव नारी का द्योतक है ।
11. व्यक्ति--कोई भी कपनी या संगम, या व्यक्ति निकाय चाहे वह निगमित हो या नहीं, “व्यक्ति”
शब्द के अन्तर्गत आता है ।
12. लोक--लोक का कोई भी वर्ग या कोई भी समुदाय “लोक” शब्द के अन्तर्गत आता है ।
1 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा मूल खण्ड (1) से खण्ड (4) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
2 विधि अनुकूलन आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा
संशोधित होकर उपरोक्त रूप में आया ।
3 1957 के अधिनियम सं0 36 की धारा 3 और अनुसूची 2 द्वारा “दृष्टांत” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
4 1957 के अधिनियम सं0 36 की धारा 3 और अनुसूची 2 द्वारा “(क)” कोष्ठकों और अक्षर का लोप किया गया ।
5 विधि अनुकूलन आदेश, 1948 द्वारा “कोई कूली जो भारत का मूल नागरिक है ” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
6 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा “भारतीय अधिवास का कोई ब्रिटिश नागरिक” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
7 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा दृष्टांत (ख), (ग) तथा (घ) का लोप किया गया ।
8 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा मूल धारा के स्थान पर प्रतिस्थापित । भारतीय दंड संहिता, 1860 3
13. [“क्वीन” की परिभाषा ।ट--विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा निरसित ।
1[14. “सरकार का सेवक”--“सरकार का सेवक” शब्द सरकार के प्राधिकार के द्वारा या अधीन, भारत
के भीतर उस रूप में बने रहने दिए गए, नियुक्त किए गए, या नियोजित किए गए किसी भी आफिसर या
15. [“ब्रिटिश इण्डिया” की परिभाषा ।ट--विधि अनुकूलन आदेश, 1937 द्वारा निरसित ।
16. [“गवर्नमेंट आफ इण्डिया” की परिभाषा ।ट--भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश,
1937 द्वारा निरसित ।
1[17. सरकार--“सरकार” केन्द्रीय सरकार या किसी 2।।। राज्य की सरकार का द्योतक है ।]
3[18. भारत--“भारत” से जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय भारत का राज्यक्षेत्र अभिप्रेत है ।]
19. न्यायाधीश--“न्यायाधीश” शब्द न केवल हर ऐसे व्यक्ति का द्योतक है, जो पद रूप से
न्यायाधीश अभिहित हो, किन्तु उस हर व्यक्ति का भी द्योतक है,
जो किसी विधि कार्यवाही में, चाहे वह सिविल हो या दाण्डिक, अन्तिम निर्णय या ऐसा निर्णय, जो
उसके विरुद्ध अपील न होने पर अन्तिम हो जाए या ऐसा निर्णय, जो किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा पुष्ट
किए जाने पर अन्तिम हो जाए, देने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो, अथवा
जो उस व्यक्ति निकाय में से एक हो, जो व्यक्ति निकाय ऐसा निर्णय देने के लिए विधि द्वारा
सशक्त किया गया हो ।
(क) सन् 1859 के अधिनियम 10 के अधीन किसी वाद में अधिकारिता का प्रयोग Eरने वाला कलक्टर
(ख) किसी आरोप के संबंध में, जिसके लिए उसे जुर्माना या कारावास का दण्ड देने की शक्ति प्राप्त है, चाहे
उसकी अपील होती हो या न होती हो, अधिकारिता का प्रयोग करने वाला मजिस्ट्रेट न्यायाधीश है ।
4
(ग) मद्रास संहिता के सन् 1816 के विनियम 7 के अधीन वादों का विचारण करने की और अवधारण करने
की शक्ति रखने वाली पंचायत का सदस्य न्यायाधीश है ।
(घ) किसी आरोप के संबंध में, जिनके लिए उसे केवल अन्य न्यायालय को विचारणार्थ सुपुर्द करने की शक्ति
प्राप्त है, अधिकारिता का प्रयोग करने वाला मजिस्ट्रेट न्यायाधीश नहीं है ।
20. न्यायालय--“न्यायालय” शब्द उस न्यायाधीश का, जिसे अकेले ही को न्यायिकत: कार्य करने
के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो, या उस न्यायाधीश-निकाय का, जिसे एक निकाय के रूप
में न्यायिकत: कार्य करने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो, जबकि ऐसा न्यायाधीश या
न्यायाधीश-निकाय न्यायिकत: कार्य कर रहा हो, द्योतक है ।
मद्रास संहिता के सन्
करने और अवधारण करने की शक्ति प्राप्त है, न्यायालय है ।
21. लोक सेवक--“लोक सेवक” शब्द उस व्यक्ति के द्योतक है जो एतस्मिन् पश्चात् निम्नगत
वर्णनों में से किसी में आता है, अर्थात् :--
6। । । । ।
दूसरा--7[भारत की 8।।। सेना] , 9[नौ सेना या वायु सेना] का हर आयुक्त आफिसर ;
5
1816 के विनियम 7 के अधीन कार्य करने वाली पंचायत, जिसे वादों का विचारण
न्यायाधीश
जिसके
न्यायनिर्णयिक कॄत्यों का चाहे स्वयं या व्यक्तियों के किसी निकाय के सदस्य के रूप में निर्वहन करने
के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो ;]
चौथा--न्यायालय का हर आफिसर 1[(जिसके अन्तर्गत समापक, रिसीवर या कमिश्नर आता है)] जिसका
ऐसे आफिसर के नाते यह कर्तव्य हो कि वह विधि या तथ्य के किसी मामले में अन्वेषण या रिपेर्ट करे,
या कोई दस्तावेज बनाए, अधिप्रमाणीकॄत करे,
1 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा धारा 14 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
2 1951 के अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा “भाग क” शब्द और अक्षर का लोप किया गया ।
3 1951 के अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा धारा 18 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
4 मद्रास सिविल न्यायालय अधिनियम, 1873 (1873 का 3) द्वारा निरसित ।
5 मद्रास सिविल न्यायालय अधिनियम, 1873 (1873 का 3) द्वारा निरसित ।
6 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा पहले खण्ड का लोप किया गया ।
7 विधि अनुकूलन आदेश, 1948 द्वारा “क्वीन का ब्रिटिश भारत या क्राउन के प्रतिनिधि के किसी सरकार के अधीन कार्य
करते हुए” शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
8 वधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा “डोमिनियन” शब्द लोप किया गया ।
9 1927 के अधिनियम सं0 10 की धारा 2 और अनुसूची 1 द्वारा “या नौसेना” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
10 1964 के अधिनियम सं0 40 की धारा 2 द्वारा पूर्ववर्ती खण्ड के स्थान पर प्रतिस्थापित । भारतीय दंड संहिता,
या रखे, या किसी सम्पत्ति का भार सम्भाले या उस सम्पत्ति का व्ययन करे, या किसी न्यायिक
आदेशिका का निष्पादन करे, या कोई शपथ ग्रहण कराए या निर्वचन करे, या न्यायालय में व्यवस्था
बनाए रखे और हर व्यक्ति, जिसे ऐसे कर्तव्यों में से किन्हीं का पालन करने का प्राधिकार न्यायालय
द्वारा विशेष रूप से दिया गया हो ;
पांचवां--किसी न्यायालय या लोक सेवक की सहायता करने वाला हर जूरी-सदस्य, असेसर या पंचायत
छठा--हर मध्यस्थ या अन्य व्यक्ति, जिसको किसी न्यायालय द्वारा, या किसी अन्य सक्षम लोक
प्राधिकारी द्वारा, कोई मामला या विषय, विनिश्चित या रिपोर्ट के लिए निर्देशित किया गया हो ;
सातवा--हर व्यक्ति जो किसी ऐसे पद को धारण करता हो, जिसके आधार से वह किसी व्यक्ति को
परिरोध में करने या रखने के लिए सशक्त हो ;
आठवां--2[सरकार] का हर आफिसर जिसका ऐसे आफिसर के नाते यह कर्तव्य हो कि वह अपराधों का
निवारण करे, अपराधों की इत्तिला दे, अपराधियों को न्याय के लिए उपस्थित करे, या लोक के स्वास्थ्य,
क्षेम या सुविधा की संरक्षा करे ;
नवां--हर आफिसर जिसका ऐसे आफिसर के नाते यह कर्तव्य हो कि वह 8[सरकार] की ओर से किसी
सम्पत्ति को ग्रहण करे, प्राप्त करे, रखे, व्यय करे, या 8[सरकार] की ओर से कोई सर्वेक्षण, निर्धारण
या संविदा करे, या किसी राजस्व आदेशिका का निष्पादन करे, या 8[सरकार] के धन-संबंधी हितों पर
प्रभाव डालने वाले किसी मामले में अन्वेषण या रिपोर्ट करे या 8[सरकार] के धन संबंधी हितों से संबंधित
किसी दस्तावेज को बनाए, अधिप्रमाणीकॄत करे या रखे, या 8[सरकार] 3।।। धन-संबंधी हितों की संरक्षा
के लिए किसी विधि के व्यतिक्रम को रोके ;
दसवां--हर आफिसर, जिसका ऐसे आफिसर के नाते यह कर्तव्य हो कि वह किसी ग्राम, नगर या
जिले के किसी धर्मनिरपेक्ष सामान्य प्रयोजन के लिए किसी सम्पत्ति को ग्रहण करे, प्राप्त करे, रखे
या व्यय करे, कोई सर्वेक्षण या निर्धारण करे, या कोई रेट या कर उद्गॄहीत करे, या किसी ग्राम, नगर
या जिले के लोगों के अधिकारों के अभिनिश्चयन के लिए कोई दस्तावेज बनाए, अधिप्रमाणीकॄत करे या
4[ग्यारहवां--हर व्यक्ति जो कोई ऐसे पद धारण करता हो जिसके आधार से वह निर्वाचक नामावली
तैयार करने, प्रकाशित करने, बनाए रखने, या पुनरीक्षित करने के लिए या निर्वाचन या निर्वाचन के
लिए भाग को संचालित करने के लिए सशक्त हो ;]
5[बारहवां--हर व्यक्ति, जो--
(क) सरकार की सेवा या वेतन में हो, या किसी लोक कर्तव्य के पालन के लिए सरकार से फीस
या कमीशन के रूप में पारिश्रमिक पाता हो ;
(ख) स्थानीय प्राधिकारी की, अथवा केन्द्र, प्रान्त या राज्य के अधिनियम के द्वारा या
अधीन स्थापित निगम की अथवा कम्पनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में यथा
परिभाषित सरकारी कम्पनी की, सेवा या वेतन में हो ।]
नगरपालिका आयुक्त लोक सेवक है ।
स्पष्टीकरण 1--ऊपर के वर्णनों में से किसी में आने वाले व्यक्ति लोक सेवक हैं, चाहे वे सरकार
द्वारा नियुक्त किए गए हों या नहीं ।
स्पष्टीकरण 2--जहां कहीं “लोक सेवक” शब्द आएं हैं, वे उस हर व्यक्ति के संबंध में समझे जाएंगे
जो लोक सेवक के ओहदे को वास्तव में धारण किए हुए हों, चाहे उस ओहदे को धारण करने के उसके
अधिकार में कैसी ही विधिक त्रुटि हो ।
6[स्पष्टीकरण 3--“निर्वाचन” शब्द ऐसे किसी विधायी, नगरपालिक या अन्य लोक प्राधिकारी के
नाते, चाहे वह कैसे ही स्वरूप का हो, सदस्यों के वरणार्थ निर्वाचन का द्योतक है जिसके लिए वरण करने
की पद्धति किसी विधि के द्वारा या अधीन निर्वाचन के रूप में विहित की गई हो ।]
1 1964 के अधिनियम सं0 40 की धारा 2 द्वारा अन्त: स्थापित ।
2 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा “क्राउन” के स्थान पर प्रतिस्थापित जिसे विधि अनुकूलन आदेश, 1937 द्वारा “सरकार”
के स्थान पर प्रतिस्थापित किया गया था ।
3 1964 के अधिनियम सं0 40 की धारा 2 द्वारा कतिपय शब्दों का लोप किया गया ।
4 1920 के अधिनियम सं0 39 की धारा 2 द्वारा अन्त:स्थापित ।
5 1964 अधिनियम सं0 40 की धारा 2 द्वारा पूर्ववर्ती खण्ड के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
6 1920 के अधिनियम सं0 39 की धारा 2 द्वारा अन्त:स्थापित भारतीय दंड संहिता, 1860 5
22. “जंगम सम्पत्ति”--“जंगम सम्पत्ति” शब्दों से यह आशयित है कि इनके अन्तर्गत हर भांति की
मूर्त सम्पत्ति आती है, किन्तु भूमि और वे चीजें, जो भू-बद्ध हों या भू-बद्ध किसी चीज से स्थायी रूप
से जकड़ी हुई हों, इनके अन्तर्गत नहीं आता ।
23. “सदोष अभिलाभ”--“सदोष अभिलाभ” विधिविरुद्ध साधनों द्वारा ऐसी सम्पत्ति का अभिलाभ है,
जिसका वैध रूप से हकदार अभिलाभ प्राप्त करने वाला व्यक्ति न हो ।
“सदोष हानि”--“सदोष हानि” विधिविरुद्ध साधनों द्वारा ऐसी सम्पत्ति की हानि है, जिसका वैध रूप से
हकदार हानि उठाने वाला व्यक्ति हो ।
“सदोष अभिलाभ प्राप्त करना” । सदोष हानि उठाना--कोई व्यक्ति सदोष अभिलाभ प्राप्त करता
है, यह तब कहा जाता है जब कि वह व्यक्ति सदोष रखे रखता है और तब भी जबकि वह सदोष अर्जन
करता है । कोई व्यक्ति सदोष हानि उठाता है, यह तब कहा जाता है जब कि उसे किसी सम्पत्ति से
सदोष अलग रखा जाता है और तब भी जबकि उसे किसी सम्पत्ति से सदोष वंचित किया जाता है ।
24.“बेईमानी से”--जो कोई इस आशय से कोई कार्य करता है कि एक व्यक्ति को सदोष अभिलाभ
कारित करे या अन्य व्यक्ति को सदोष हानि कारित करे, वह उस कार्य को “बेईमानी से” करता है, यह
25.“कपटपूर्वक”--कोई व्यक्ति किसी बात को कपटपूर्वक करता है, यह कहा जाता है, यदि वह उस
बात को कपट करने के आशय से करता है, अन्यथा नहीं ।
26. “विश्वास करने का कारण”--कोई व्यक्ति किसी बात के “विश्वास करने का कारण” रखता है, यह
तब कहा जाता है जब वह उस बात के विश्वास करने का पर्याप्त हेतुक रखता है, अन्यथा नहीं ।
27. “पत्नी, लिपिक या सेवक के कब्जे में सम्पत्ति”--जबकि सम्पत्ति किसी व्यक्ति के निमित्त
उस व्यक्ति की पत्नी, लिपिक या सेवक के कब्जे में है, तब वह इस संहिता के अर्थ के अन्तर्गत उस
व्यक्ति के कब्जे में है ।
स्पष्टीकरण--लिपिक या सेवक के नाते अस्थाई रूप से या किसी विशिष्ट अवसर पर नियोजित
व्यक्ति इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत लिपिक या सेवक है ।
28. “कूटकरण”--जो व्यक्ति एक चीज को दूसरी चीज के सदृश इस आशय से करता है कि वह
उस सदृश से प्रवंचना करे, या यह संभाव्य जानते हुए करता है कि तद्द्वारा प्रवंचना की जाएगी.
वह “कूटकरण” करता है, यह कहा जाता है ।
2[स्पष्टीकरण 1--कूटकरण के लिए यह आवश्यक नहीं है कि नकल ठीक वैसी ही हो ।
स्पष्टीकरण 2--जब कि कोई व्यक्ति एक चीज को दूसरी चीज के सदृश कर दे और सादृश्य ऐसा है
कि तद्द्वारा किसी व्यक्ति को प्रवंचना हो सकती हो, तो जब तक कि तत्प्रतिकूल साबित न किया जाए,
यह उपधारणा की जाएगी कि जो व्यक्ति एक चीज की दूसरी चीज के इस प्रकार सदृश बनाता है उसका
आशय उस सादृश्य द्वारा प्रवंचना करने का था या वह यह सम्भाव्य जानता था कि तद्द्वारा प्रवंचना
29. “दस्तावेज”--“दस्तावेज” शब्द किसी भी विषय का द्योतक है जिसके किसी पदार्थ पर अक्षरों,
अंकों या चिह्न के साधन द्वारा, या उनसे एक से अधिक साधनों द्वारा अभिव्यक्त या वर्णित किया गया
हो जो उस विषय के साक्षी के रूप में उपयोग किए जाने को आशयित हो या उपयोग किया जा सके ।
स्पष्टीकरण 1--यह तत्वहीन है कि किस साधन द्वारा या किस पदार्थ पर अक्षर, अंक या चिह्न
बनाए गए हैं, या यह कि साक्ष्य किसी न्यायालय के लिए आशयित है या नहीं, या उसमें उपयोग किया
जा सकता है या नहीं ।
किसी संविदा के निबन्धनों को अभिव्यक्त करने वाला लेख, जो उस संविदा के साक्ष्य के रूप में उपयोग किया
बैंककार पर दिया गया चेक दस्तावेज है ।
मुख्तारनामा दस्तावेज है ।
मानचित्र या रेखांक, जिसको साक्ष्य के रूप में उपयोग में लाने का आशय हो या जो उपयोग में लाया जा सके,
1 1964 के अधिनियम सं0 40 की धारा 2 द्वारा स्पष्टीकरण 4 का लोप किया गया ।
2
1889 के अधिनियम सं0 1 की धारा 9 द्वारा मूल स्पष्टीकरण के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
जिस लेख में निर्देश या अनुदेश अन्तर्विष्ट हों, वह दस्तावेज है ।
स्पष्टीकरण 2--अक्षरों, अंकों या चिह्नों से जो कुछ भी वाणिज्यिक या अन्य प्रथा के अनुसार
व्याख्या करने पर अभिव्यक्य होता हो, वह इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत ऐसे अक्षरों, अंकों या चिह्नों
से अभिव्यक्त हुआ समझा जाएगा, चाहे वह वस्तुत: अभिव्यक्त न किया गया हो ।
क एक विनिमय पत्र की पीठ पर, जो उसके आदेश के अनुसार देय है, अपना नाम लिख देता है । वाणिज्यिक
प्रथा के अनुसार व्याख्या करने पर इस पॄष्ठांकन का अर्थ है कि धारक को विनिमयपत्र का भुगतान कर दिया जाए
। पॄष्ठांकन दस्तावेज है और इसका अर्थ उसी प्रकार से लगाया जाना चाहिए मानो हस्ताक्षर के ऊपर “धारक को
भुगतान करो ” शब्द या तत्प्रभाव वाले शब्द लिख दिए गए हों ।
[29क. “इलैक्ट्रानिक अभिलेख” शब्दों का वही अर्थ होगा जो सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम,
2000 की धारा 2 की उपधारा (1) के खण्ड (न) में है ।]
30. “मूल्यवान प्रतिभूति”--“मूल्यवान प्रतिभूति” शब्द उस दस्तावेज के द्योतक हैं, जो ऐसी
दस्तावेज है, या होनी तात्पर्यित है, जिसके द्वारा कोई विधिक अधिकार सॄजित, विस्तॄत, अन्तरित,
निर्बन्धित, निर्वापित किया जाए, छोड़ा जाए या जिसके द्वारा कोई व्यक्ति यह अभिस्वीकार करता है
कि वह विधिक दायित्व के अधीन है, या अमुक विधिक अधिकार नहीं रखता है ।
क एक विनिमयपत्र की पीठ पर अपना नाम लिख देता है । इस पॄष्ठांकन का प्रभाव किसी व्यक्ति को,
जो उसका विधिपूर्ण धारक हो जाए, उस विनिमयपत्र पर का अधिकार अन्तरित किया जाता है, इसलिए यह
पॄष्ठांकन “मूल्यवान प्रतिभूति” है ।
31. “बिल”--“बिल” शब्द किसी भी वसीयती दस्तावेज का द्योतक है ।
32. कार्यों का निर्देश करने वाले शब्दों के अन्तर्गत अवैध लोप आता है --जब तक कि संदर्भ से
तत्प्रतिकूल आशय प्रतीत न हो, इस संहिता के हर भाग में किए गए कार्यों का निर्देश करने वाले शब्दों
का विस्तार अवैध लोपों पर भी है ।
33. “कार्य”--“कार्य” शब्द कार्यावली की द्योतक उसी प्रकार है जिस प्रकार एक कार्य का ।
“लोप”--“लोप” शब्द लोपावली की द्योतक उसी प्रकार है जिस प्रकार एक लोप का ।
2[34. सामान्य आशय को अग्रसर करने में कई व्यक्तियों द्वारा किए गए कार्य--जबकि कोई
आपराधिक कार्य कई व्यक्तियों द्वारा अपने सबके सामान्य आशय को अग्रसर करने में किया जाता
है, तब ऐसे व्यक्तियों में से हर व्यक्ति उस कार्य के लिए उसी प्रकार दायित्व के अधीन है, मानो वह
कार्य अकेले उसी ने किया हो ।]
35. जबकि ऐसा कार्य इस कारण आपराधिक है कि वह आपराधिक ज्ञान या आशय से किया गया
है--जब कभी कोई कार्य, जो आपराधिक ज्ञान या आशय से किए जाने के कारण ही आपराधिक है, कई
व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, तब ऐसे व्यक्तियों में से हर व्यक्ति, जो ऐसे ज्ञान या आशय से उस
कार्य में सम्मिलित होता है, उस कार्य के लिए उसी प्रकार दायित्व के अधीन है, मानो वह कार्य उस
ज्ञान या आशय से अकेले उसी द्वारा किया गया हो ।
36. अंशत: कार्य द्वारा और अंशत: लोप द्वारा कारित परिणाम--जहां कहीं किसी कार्य द्वारा या
किसी लोप द्वारा किसी परिणाम का कारित किया जाना या उस परिणाम को कारित करने का प्रयत्न
करना अपराध है, वहां यह समझा जाना है कि उस परिणाम का अंशत: कार्य द्वारा और अंशत: लोप द्वारा
कारित किया जाना वही अपराध है ।
क अंशत: य को भोजन देने का अवैध रूप से लोप करके और अंशत: य को पीट कर साशय य की मॄत्यु कारित
करता है । क ने हत्या की है ।
37. किसी अपराध को गठित करने वाले कई कार्यों में से किसी एक को करके सहयोग करना--जबकि
कोई अपराध कई कार्यों द्वारा किया जाता है, तब जो कोई या तो अकेले या किसी अन्य व्यक्ति के साथ
सम्मिलित होकर उन कार्यों में से कोई एक कार्य करके उस अपराध के किए जाने में साशय सहयोग
करता है, वह उस अपराध को करता है ।
(क) क और ख पॄथक््-पॄथक् रूप से और विभिन्न समयों पर य को विष की छोटी-छोटी मात्राएं देकर उसकी
हत्या करने को सहमत होते हैं । क और ख, य की हत्या करने के आशय से सहमति के अनुसार य को विष देते हैं
। य इस प्रकार दी गई विष की कई मात्राओं के प्रभाव से मर जाता है । यहां क और ख हत्या करने में साशय
सहयोग करते हैं और क्योंकि उनमें से हर एक ऐसा कार्य करता है, जिससे मॄत्यु कारित होती है, वे दोनों इस
अपराध के दोषी हैं, यद्यपि उनके कार्य पॄथक् हैं ।
(ख) क और ख संयुक्त जेलर हैं, और अपनी उस हैसियत में वे एक कैदी य का बारी-बारी से एक समय में
6 घंटे के लिए संरक्षण-भार रखते हैं य को दिए जाने के प्रयोजन से जो भोजन क और ख को दिया जाता है, वह
भोजन इस आशय से कि य की मॄत्यु कारित कर दी जाए,
1 2000 के अधिनियम सं0 21 की धारा 91 और पहली अनुसूची द्वारा (17-10-2000 से) अंतःस्थापित ।
2 1870 के अधिनियम सं0 27 की धारा 1 द्वारा मूल धारा के स्थान पर प्रतिस्थापित । भारतीय दंड संहिता,
हर एक अपने हाजिरी के काल में य को देने का लोप करके वह परिणाम अवैध रूप से कारित करने में जानते
हुए सहयोग करते हैं । य भूख से मर जाता है । क और ख दोनों य की हत्या के दोषी हैं ।
(ग) एक जेलर क, एक कैदी य का संरक्षण-भार रखता है । क, य की मॄत्यु कारित करने के आशय से, य को
भोजन देने का अवैध रूप से लोप करता है, जिसके परिणामस्वरूप य की शक्ति बहुत क्षीण हो जाती है, किन्तु यह
क्षुधापीड़न उसकी मॄत्य, कारित करने के लिए पर्याप्त नहीं होता । क अपने पद से च्युत कर दिया जाता है और
ख उसका उत्तरवर्ती होता है । क से दुस्संधि या सहयोग किए बिना ख यह जानते हुए कि ऐसा करने से संभाव्य है
कि वह य की मॄत्यु कारित कर दे, य को भोजन देने का अवैध रूप से लोप करता है । य, भूख से मर जाता है । ख
हत्या का दोषी है किन्तु क ने ख से सहयोग नहीं किया, इसलिए क हत्या के प्रयत्न का ही दोषी है ।
38. आपराधिक कार्य में संपॄक्त व्यक्ति विभिन्न अपराधों के दोषी हो सकेंगे--जहां कि कई व्यक्ति
किसी आपराधिक कार्य को करने में लगे हुए या सम्पॄक्त हैं, वहां वे उस कार्य के आधार पर विभिन्न
अपराधों के दोषी हो सकेंगे ।
क गम्भीर प्रकोपन की ऐसी परिस्थतियों के अधीन य पर आक्रमण करता है कि य का उसके द्वारा वध
किया जाना केवल ऐसा आपराधिक मानववध है, जो हत्या की कोटि में नहीं आता है । ख जो य से वैमनस्य रखता
है, उसका वध करने के आशय से और प्रकोपन के वशीभूत न होते हुए य का वध करने में क की सहायता करता
है । यहां, यद्यपि क और ख दोनों य की मॄत्यु कारित करने में लगे हुए हैं, ख हत्या का दोषी है और क केवल
आपराधिक मानव वध का दोषी है ।
39. “स्वेच्छया”--कोई व्यक्ति किसी परिणाम को “स्वेच्छया” कारित करता है, यह तब कहा जाता है,
जब वह उसे उन साधनों द्वारा कारित करता है, जिनके द्वारा उसे कारित करना उसका आशय था या उन
साधनों द्वारा कारित करता है जिन साधनों को काम में लाते समय वह यह जानता था, या यह विश्वास
करने का कारण रखता था कि उनसे उसका कारित होना संभाव्य है ।
क. लूट को सुकर बनाने के प्रयोजन से एक बड़े नगर के एक बसे हुए गॄह में रात को आग लगाता है और इस
प्रकार एक व्यक्ति की मॄत्यु कारित कर देता है । यहां क का आशय भले ही मॄत्यु कारित करने का न रहा हो और
वह दुखित भी हो कि उसके कार्य से मॄत्यु कारित हुई है तो भी यदि वह यह जानता था कि संभाव्य है कि वह मॄत्यु
कारित कर दे तो उसने स्वेच्छया मॄत्यु कारित की है ।
[40.“अपराध”--इस धारा के खण्ड 2 और 3 में वर्णित 2[अध्यायों] और धाराओं में के
सिवाय “अपराध” शब्द इस संहिता द्वारा दण्डनीय की गई किसी बात का द्योतक है ।
अध्याय 4, 3[अध्याय 5क] और निम्नलिखित धारा, अर्थात् धारा 4[64, 65, 66, 5[67ट, 71ट,
109, 110, 112, 114, 115,
116, 117, 187, 194, 195, 203, 211, 213, 214, 221, 222, 223,,
224, 225, 327, 328, 329,
330, 331, 347, 348, 388, 389 और 445 में “अपराध” शब्द इस संहिता
के अधीन या एत्स्मिनपश्चात् यथापरिभाषित विशेष या स्थानीय विधि के अधीन दण्डनीय बात का
और धारा 141, 176, 177,
201, 202, 212, 216 और 441 में “अपराध” शब्द का अर्थ उस दशा
में वही है जिसमें कि विशेष या स्थानीय विधि के अधीन दण्डनीय बात ऐसी विधि के अधीन छह मास या
उससे अधिक अवधि के कारावास से, चाहे वह जुर्माने सहित हो या रहित, दण्डनीय हो ।]
41. “विशेष विधि”--“विशेष विधि” वह विधि है जो किसी विशिष्ट विषय को लागू हो ।
42. “स्थानीय विधि”--“स्थानीय विधि” वह विधि है जो 6[7।।।।।। 8[भारत]] के किसी विशिष्ट भाग को ही
43. “अवैध”--“अवैध” शब्द हर उस बात को लागू है, जो अपराध हो, या जो विधि द्वारा प्रतिषिद्ध
हो, या जो सिविल कार्यवाही के लिए आधार उत्पन्न करती हो ; और “करने के लिए वैध रूप से आबद्ध”—
कोई व्यक्ति उस बात को “करने के लिए वैध रूप से आबद्ध” कहा जाता है जिसका लोप करना उसके लिए
44. “क्षति”--“क्षति” शब्द किसी प्रकार की अपहानि का द्योतक है, जो किसी व्यक्ति के शरीर,
मन, ख्याति या सम्पत्ति को अवैध रूप से कारित हुई हो ।
1 1870 के अधिनियम सं0 27 की धारा 2 द्वारा मूल धारा 40 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
2 1930 के अधिनियम सं0 8 की धारा 2 और अनुसूची 1 द्वारा “अध्याय ” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
3 1913 के अधिनियम सं0 8 की धारा 2 द्वारा अन्त:स्थापित ।
4 1882 के अधिनियम सं0 8 की धारा 1 द्वारा अन्त:स्थापित ।
5 1886 के अधिनियम सं0 10 कि धारा 21(1) द्वारा अन्त:स्थापित ।
6 विधि अनुकूलन आदेश, 1948 द्वारा “ब्रिटिश भारत” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
7 1952 के धिनियम सं0 48 की धारा 3 और अनुसूची 2 द्वारा “समाविष्ट राज्यक्षेत्रों में” शब्दों का लोप किया गया ।
8 1951 के अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा “राज्यों” के स्थान पर प्रतिस्थापित जिसे विधि अनुकूलन
आदेश, 1950 द्वारा “प्रान्तों” के स्थान पर प्रतिस्थापित किया गया था ।
45.“जीवन”--जब तक कि संदर्भ से तत्प्रतिकूल प्रतीत न हो, “जीवन” शब्द मानव के जीवन का
46.“मॄत्यु”--जब तक कि संदर्भ केे तत्प्रतिकूल प्रतीत न हो, “मॄत्यु” शब्द मानव की मॄत्यु का
47.“जीवजन्तु”--“जीवजन्तु” शब्द मानव से भिन्न किसी जीवधारी का द्योतक है ।
48.“जलयान”--“जलयान” शब्द किसी चीज का द्योतक है, जो मानवों के या सम्पत्ति के जल द्वारा
प्रवहण के लिए बनाई गई हो ।
49. “वर्ष” या “मास”--जहां कहीं “वर्ष” शब्द या “मास” शब्द का प्रयोग किया गया है वहां यह
समझा जाना है कि वर्ष या मास की गणना ब्रिटिश कलैंडर के अनुकूल की जानी है ।
50. “धारा”--“धारा” शब्द इस संहिता के किसी अध्याय के उन भागों में से किसी एक का द्योतक है,
जो सिरे पर लगे संख्यांकों द्वारा सुभिन्न किए गए हैं ।
51.“शपथ”--शपथ के लिए विधि द्वारा प्रतिस्थापित सत्यनिष्ठ प्रतिज्ञान और ऐसी कोई घोषणा,
जिसका किसी लोक सेवक के समक्ष किया जाना या न्यायालय में या अन्यथा सबूत के प्रयोजन के लिए
उपयोग किया जाना विधि द्वारा अपेक्षित या प्राधिकॄत हो, “शपथ” शब्द के अन्तर्गत आती है ।
52. “सद्भावपूर्वक”--कोई बात “सद्भावपूर्वक” की गई या विश्वास की गई नहीं कही जाती तो
सम्यक् सतर्कता और ध्यान के बिना की गई या विश्वास की गई हो ।
1[52क. “संश्रय”--धारा 157 में के सिवाय और धारा 130 में वहां के सिवाय जहां कि संश्रय संश्रित
व्यक्ति की पत्नी या पति द्वारा दिया गया हो, “संश्रय” शब्द के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को आश्रय,
भोजन, पेय, धन, वस्त्र, आयुध, गोलाबारूद या प्रवहण के साधन देना, या किन्हीं साधनों से चाहे वे उसी
प्रकार के हों या नहीं, जिस प्रकार के इस धारा में परिगणित हैं किसी व्यक्ति की सहायता पकड़े जाने से
बचने के लिए करना, आता है ।]
53. “दण्ड”--अपराधी इस संहिता के उपबंधों अधीन जिन दण्डों से दण्डनीय हैं, वे ये हैं—
पहला--मॄत्यु ;
2[दूसरा--आजीवन कारावास ;]
चौथा--कारावास, जो दो भांति का है, अर्थात् :—
(1) कठिन, अर्थात् कठोर श्रम के साथ ;
(2) सादा ;
पांचवां--सम्पत्ति का समपहरण ;
छठा--जुर्माना ।
4[53क. निर्वासन के प्रति निर्देश का अर्थ लगाना--(1) उपधारा (2) और उपधारा (3) के
उपबन्धों के अध्यधीन किसी अन्य तत्समय प्रवॄत्त विधि में, या किसी ऐसी विधि या किसी निरसित
अधिनियमिति के आधार पर प्रभावशील किसी लिखत या आदेश में “आजीवन निर्वासन” के प्रति निर्देश
का अर्थ यह लगाया जाएगा कि वह “आजीवन कारावास” के प्रति निर्देश है ।
1 1942 के अधिनियम सं0 8 की धारा 2 द्वारा अन्त:स्थापित जिसे विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा “प्रान्तो” के स्थान पर
प्रतिस्थापित किया गया ।
2 1955 के अधिनियम सं0 26 की धारा 117 और अनुसूची द्वारा “दूसरा --निर्वासन” के स्थान पर (1-1-1956 से)
3 1949 के अधिनियम सं0 17 की धारा 2 द्वारा (6 अप्रैल, 1949 से) खण्ड “ तीसरा ” का लोप किया गया ।
4 1955 के अधिनियम सं0 26 की धारा 117 और अनुसूची द्वारा (1-1-1956 से) अंतःस्थापित । भारतीय दंड
(2) हर मामले में, जिसमें कि किसी अवधि के लिए निर्वासन का दण्डादेश दण्ड प्रव्रिEया संहिता
(संशोधन) अधिनियम, 1[1955 (1955 का 26)] के प्रारम्भ से पूर्व दिया गया है, अपराधी से उसी प्रकार
बरता जाएगा, मानो वह उसी अवधि के लिए कठिन कारावास के लिए दण्डादिष्ट किया गया हो ।
(3) किसी अन्य तत्समय प्रवॄत्त विधि में किसी अवधि के लिए निर्वासन या किसी लघुतर अवधि
के लिए निर्वासन के प्रति (चाहे उसे कोई भी नाम दिया गया हो) कोई निर्देश लुप्त कर दिया गया
(4) किसी अन्य तत्समय प्रवॄत्त विधि में निर्वासन के प्रति जो कोई निर्देश हो---
(क) यदि उस पद से आजीवन निर्वासन अभिप्रेतहै, तो उसका अर्थ आजीवन कारावास के
प्रति निर्देश होना लगाया जाएगा ;
(ख) यदि उस पद से किसी लघुतर वधि के लिए निर्वासन अभिप्रेत है, तो यह समझा जाएगा
कि वह लुप्त कर दिया गया है ।]
54. मॄत्यु दण्डादेश का लघुकरण--हर मामले में, जिसमें मॄत्यु का दण्डादेश दिया गया हो, उस दण्ड
को अपराधी की सम्मति के बिना भी 2[समुचित सरकार] इस संहिता द्वारा उपबन्धित किसी अन्य दंड में
55. आजीवन कारावास के दण्डादेश का लघुकरण—हर मामले में, जिसमें आजीवन 3[कारावास] का दण्डादेश
दिया गया हो, अपराधी की सम्मति के बिना भी 4[समुचित सरकार] उस दण्ड को ऐसी अवधि के लिए, जो
चौदह वर्ष से अधिक न हो, दोनों में से किसी भांति के कारावास में लघुकॄत कर सकेगी ।
5[55क. “समुचित सरकार” की परिभाषा--धारा 54 और 55 में “समुचित सरकार” पद से,--
(क) उन मामलों में केन्द्रीय सरकार अभिप्रेत है, जिनमें दंडादेश मॄत्यु का दण्डादेश है, या
ऐसे विषय से, जिस पर संघ की कार्यपालन शक्ति का विस्तार है, संबंधित किसी विधि के विरुद्ध
अपराध के लिए है ; तथा
(ख) उन मामलों में उस राज्य की सरकार, जिसके अन्दर अपराधी दण्डादिष्ट हुआ है, अभिप्रेत
है, जहां कि दंडादेश (चाहे मॄत्यु हो या नहीं) ऐसे विषय से, जिस पर राज्य की कार्यपालन शक्ति का
विस्तार है, संबंधित किसी विधि के विरुद्ध अपराध के लिए है ।]
56. य़ूरोपियों तथा अमरीकियों को कठोरश्रम कारावास का दण्डादेश । दस वर्ष से अधिक किन्तु जो
आजीवन कारावास से अधिक न हो, दण्डादेश के संबंध में परन्तुक ।] दांडिक विधि (मूलवंशीय विभेदों का
निराकरण) अधिनियम, 1949 (1949 का 17) द्वारा ( 6 अप्रैल, 1949 से ) निरसित ।
57. दण्डावधियों की भिन्नें - दण्डावधियों की भिन्नों की गणना करने में, आजीवन 4[कारावास] को बीस
वर्ष के 4[कारावास] के तुल्य गिना जाएगा ।
58. [निर्वासन से दण्डादिष्ट अपराधियों के साथ कैसा व्यवहार किया जाए जब तक वे निर्वासित
न कर दिए जाएं ।ट--दण्ड प्रव्रिEया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1955 (1955 का 26) की धारा 117
और अनुसूची द्वारा (1-1-1956 से) निरसित ।
59. [कारावास के बदले निर्वासनट--दण्ड प्रव्रिEया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1955 (1955 का
26) की धारा 117 और अनुसूची द्वारा (1 जनवरी, 1956 से) निरसित ।
60. दण्डादिष्ट कारावास के कतिपय मामलों में सम्पूर्ण कारावास या उसका कोई भाग कठिन या
सादा हो सकेगा--हर मामले में, जिसमें अपराधी दोनों में से किसी भांति के कारावास से दण्डनीय है, वह
न्यायालय, जो ऐसे अपराधी को दण्डादेश देगा, सक्षम होगा कि दण्डादेश में यह निर्दिष्ट करे कि ऐसा
सम्पूर्ण कारावास कठिन होगा, या यह कि ऐसा सम्पूर्ण कारावास सादा होगा, या यह कि ऐसे कारावास
का कुछ भाग कठिन होगा और शेष सादा ।
61.[सम्पत्ति के समपहरण का दण्डादेश। ट--भारतीय दण्ड संहिता के समपहरण का दण्डादेश
भारतीय दण्ड संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1921 (1921 का 16) की धारा 4 द्वारा निरसित ।
1 1957 के अधिनियम सं0 36 की धारा 3 और अनुसूची 2 द्वारा “1954” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
2 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा “केन्द्रीय सरकार या उस प्रान्त की प्रान्तीय सरकार जिसके भीतर अपराधी को दण्ड
दिया जाएगा” के स्थान पर प्रतिस्थापित । मोटे शब्द भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश 1937 द्वारा “भारत
सरकार या उस स्थान की सरकार” के स्थान पर प्रतिस्थापित किए गए थे ।
3 1955 के अधिनियम सं0 26 की धारा 117 और अनुसूची द्वारा (1-1-1956 से) “निर्वासन” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
4 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा “उस प्रान्त की प्रान्तीय सरकार जिसके भीतर अपराधी को दण्ड दिया जाएगा” के स्थान
पर प्रतिस्थापित । मोटे शब्द भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश 1937 द्वारा “भारत सरकार या उस स्थान की
सरकार” के स्थान पर प्रतिस्थापित किए गए थे ।
5 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा धारा 55क के स्थान पर प्रतिस्थापित । धारा 55क भारत शासन (भारतीय विधि
अनुकूलन) आदेश, 1937 द्वारा अन्त:स्थापित की गई थी ।
62.[मॄत्यु, निर्वासन या कारावास से दण्डनीय अपराधियों की बाबत सम्पत्ति का समपहरण ।]
भारतीय दण्ड संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1921 (1921 का 16) की धारा 4 द्वारा निरसित ।
63. जुर्माने की रकम--जहां कि वह राशि अभिव्यक्त नहीं की गई है जितनी तक जुर्माना हो सकता
है, वहां अपराधी जिस रकम के जुर्माने का दायी है, वह अमर्यादित है किन्तु अत्यधिक नहीं होगी ।
64. जुर्माना न देने पर कारावास का दण्डादेश--1[कारावास और जुर्माना दोनों से दण्डनीय अपराध के हर
मामले में, जिसमें अपराधी कारावास सहित या रहित, जुर्माने से दण्डादिष्ट हुआ है,
तथा 2[कारावास या जुर्माने अथवा] केवल जुर्माने से दंडनीय अपराध के हर मामले में, जिसमें
अपराधी जुर्माने से दण्डादिष्ट हुआ है,]
वह न्यायालय जो ऐसे अपराधी को दण्डादिष्ट करेगा, सक्षम होगा कि दण्डादेश द्वारा निदेश दे कि
जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने की दशा में, अपराधी अमुक अवधि के लिए कारावास भोगेगा जो कारावास
उस अन्य कारावास के अतिरिक्त होगा जिसके लिए वह दण्डादिष्ट हुआ है या जिससे वह दण्डादेश के
लघुकरण पर दण्डनीय है ।
65. जब कि कारावास और जुर्माना दोनों आदिष्ट किए जा सकते हैं, तब जुर्माना न देने पर
कारावास की अवधि--यदि अपराध कारावास और जुर्माना दोनों से दण्डनीय हो, तो वह अवधि, जिसके लिए
जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने की दशा के लिए न्यायालय अपराधी को कारावासित करने का निदेश दे,
कारावास की उस अवधि की एक चौथाई से अधिक न होगी, जो अपराध के लिए अधिकतम नियत है ।
66. जुर्माना न देने पर किस भांति का कारावास दिया जाए--वह कारावास, जिसे न्यायालय जुर्माना
देने में व्यतिक्रम होने की दशा के लिए अधिरोपित करे, ऐसी किसी भांति का हो सकेगा, जिससे अपराधी
को उस अपराध के लिए दण्डादिट किया जा सकता था ।
67. जुर्माना न देने पर कारावास, जबकि अपराध केवल जुर्माने से दण्डनीय हो--यदि अपराध केवल
जुर्माने से दण्डनीय हो तो 3[वह कारावास, जिसे न्यायालय जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने की दशा के
लिए अधिरोपित करे, सादा होगा और] वह अवधि, जिसके लिए जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने की दशा
के लिए न्यायालय अपराधी को कारावासित करने का निदेश दे, निम्न मापमान से अधिक नहीं होगी,
जब कि जुर्माने का परिमाण पचास रुपए से अधिक न हो तब दो मास से अनधिक कोई अवधि,
तथा जब कि जुर्माने का परिमाण एक सौ रुपए से अधिक न हो तब चार मास से अनधिक कोई
तथा किसी अन्य दशा में छह मास से अनधिक कोई अवधि ।
68. जुर्माना देने पर कारावास का पर्यवसान हो जाना--जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने की दशा के
लिए अधिरोपित कारावास तब पर्यवसित हो जाएगा, जब वह जुर्माना या तो चुका दिया जाए या विधि की
प्रव्रिEया द्वारा उद्गॄहीत कर लिया जाए ।
69. जुर्माने के आनुपातिक भाग के दे दिए जाने की दशा में कारावास का पर्यवसान--यदि जुर्माना
देने में व्यतिक्रम होने की दशा के लिए नियत की गई कारावास की अवधि का अवसान होने से पूर्व
जुर्माने का ऐसा अनुपात चुका दिया या उद्गॄहीत कर लिया जाए कि देने में व्यतिक्रम होने पर कारावास
की जो अवधि भोगी जा चुकी हो, वह जुर्माने के तब तक न चुकाए गए भाग के आनुपातिक से कम न हो
तो कारावास पर्यवसित हो जाएगा ।
क एक सौ रुपए के जुर्माने और उसके देने में व्यतिक्रम होने की दशा के लिए चार मास के कारावास से
दण्डादिष्ट किया गया है । यहां यदि कारावास के एक मास के अवसान से पूर्व जुर्माने के पचत्तहर रुपए चुका दिए
जाएं या उद्गॄहीत कर लिए जाएं तो प्रथम मास का अवसान होते ही क उन्मुक्त कर दिया जाएगा । यदि पचत्तहर
रुपए प्रथम मास के अवसान पर या किसी भी पश्चात््वर्ती समय पर, जब कि क कारावास में है, चुका दिए या
उद्गॄहीत कर लिए जाएं, तो क तुरन्त उन्मुक्त कर दिया जाएगा । यदि कारावास के दो मास के अवसान से पूर्व
जुर्माने के पचास रुपए चुका दिए जाएं या उद्गॄहीत कर लिए जाएं, तो क दो मास के पूरे होते ही उन्मुक्त कर दिया
जाएगा । यदि पचास रुपए उन दो मास के अवसान पर या किसी भी पश्चात््वर्ती समय पर, जब कि क कारावास में
है, चुका दिए जाएं या उद्गॄहीत कर लिए जाएं, तो क तुरन्त उन्मुक्त कर दिया जाएगा ।
70. जुर्माने का छह वर्ष के भीतर या कारावास के दौरान में उद्ग्रहणीय होना । सम्पत्ति को
दायित्व से मॄत्यु उन्मुक्त नहीं करती--जुर्माना या उसका कोई भाग, जो चुकाया न गया हो, दण्डादेश
दिए जाने के पश्चात् छह वर्ष के भीतर किसी भी समय, और यदि अपराधी दण्डादेश के अधीन छह वर्ष
से अधिक के कारावास से दण्डनीय हो तो उस कालावधि के अवसान से पूर्व किसी समय, उद्गॄहीत किया
जा सकेगा; और अपराधी की मॄत्यु किसी भी सम्पत्ति को, जो उसकी मॄत्यु के पश्चात् उसके त्रऐंणों के
लिए वैध रूप से दायी हो, इस दायित्व से उन्मुक्त नहीं करती ।
71. कई अपराधों से मिलकर बने अपराध के लिए दण्ड की अवधि--जहां कि कोई बात, जो अपराध है,
ऐसे भागों से, जिनमें का कोई भाग स्वयं अपराध है, मिलकर बनी है, वहां अपराधी अपने ऐसे अपराधों में
से एक से अधिक के दण्ड से दण्डित न किया जाएगा, जब तक कि ऐसा अभिव्यक्त रूप से उपबन्धित न
हो ।
1 1882 के अधिनियम सं0 8 की धारा 2 द्वारा “प्रत्येक ऐसी दशा में जिसमें अपराधी जुर्माने से दडादिष्ट हुआ है” के स्थान
2 1986 के अधिनियम सं0 10 की धारा 21(2) द्वारा अन्त:स्थापित ।
3 1982 के अधिनियम सं0 8 की धारा 3 द्वारा अन्त:स्थापित । भारतीय दंड संहिता, 1860 11
1[जहां कि कोई बात अपराधों को परिभाषित या दण्डित करने वाली किसी तत्समय प्रवॄत्त विधि की
दो या अधिक पॄथक् परिभाषाओं में आने वाला अपराध है, अथवा
जहां कि कई कार्य, जिनमें से स्वयं एक से या स्वयं एकाधिक से अपराध गठित होता है, मिलकर
भिन्न अपराध गठित करते हैं ;
वहां अपराधी को उससे गुरुत्तर दण्ड से दण्डित न किया जाएगा, जो ऐसे अपराधों में से किसी भी
एक के लिए वह न्यायालय, जो उसका विचारण करे, उसे दे सकता हो ।]
(क) क, य पर लाठी से पचास प्रहार करता है । यहां, हो सकता है कि क ने सम्पूर्ण मारपीट द्वारा
उन प्रहारों में से हर एक प्रहार द्वारा भी, जिनसे वह सम्पूर्ण मारपीट गठित है, य की स्वेच्छया उपहति
कारित करने का अपराध किया हो । यदि क हर प्रहार के लिए दण्डनीय होता वह हर एक प्रहार के लिए
एक वर्ष के हिसाब से पचास वर्ष के लिए कारावासित किया जा सकता था । किन्तु वह सम्पूर्ण मारपीट
के लिए केवल एक ही दण्ड से दण्डनीय है ।
(ख) किन्तु यदि उस समय जब क, य को पीट रहा है, म हस्तक्षेप करता है, और क, म पर साशय
प्रहार करता है, तो यहां म पर किया गया प्रहार उस कार्य का भाग नहीं है, जिसके द्वारा क, य को
स्वेच्छया उपहति कारित करता है, इसलिए क, य को स्वेच्छया कारित की गई उपहति के लिए एक दण्ड
से और म पर किए गए प्रहार के लिए दूसरे दण्ड से दण्डनीय है ।
72. कई अपराधों में से एक के दोषी व्यक्ति के लिए दण्ड जबकि निर्णय में यह कथित है कि यह
संदेह है कि वह किस अपराध का दोषी है--उन सब मामलों में, जिनमें यह निर्णय दिया जाता है कि कोई
व्यक्ति उस निर्णय में विनिर्दिष्ट कई अपराधों में से एक अपराध का दोषी है, किन्तु यह संदेहपूर्ण है
कि वह उन अपराधों में से किस अपराध का दोषी है, यदि वही दण्ड सब अपराधों के लिए उपबन्धित नहीं
है तो वह अपराधी उस अपराध के लिए दण्डित किया जाएगा, जिसके लिए कम से कम दण्ड उपबन्धित
73. एकांत परिरोध--जब कभी कोई व्यक्ति ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध ठहराया जाता है जिसके
लिए न्यायालय को इस संहिता के अधीन उसे कठिन कारावास से दंडादिष्ट करने की शक्ति है, तो
न्यायालय अपने दंडादेश द्वारा आदेश दे सकेगा कि अपराधी को उस कारावास के, जिसके लिए वह
दंडादिष्ट किया गया है, किसी भाग या भागों के लिए, जो कुल मिलाकर तीन मास से अधिक न होंगे,
निम्न मापमान के अनुसार एकांत परिरोध में रखा जाएगा, अर्थात्् :--
यदि कारावास की अवधि छह मास से अधिक न हो ते एक मास से अनधिक समय ;
यदि कारावास की अवधि छह मास से अधिक हो और 2[एक वर्ष से अधिक न हो] तो दो मास से
यदि कारावास की अवधि एक वर्ष से अधिक हो तो तीन मास से अनधिक समय ।
74. एकांत परिरोध की अवधि--एकांत परिरोध के दण्डादेश के निष्पादन में ऐसा परिरोध किसी दशा
में भी एक बार में चौदह दिन से अधिक न होगा । साथ ही ऐसे एकांत न की कालावधियों के बीच में उन
कालावधियों से अन्यून अंतराल होंगे; और जब दिया गया कारावास तीन मास से अधिक हो, तब दिए गए
सम्पूर्ण कारावास के किसी एक मास में एकांत परिरोध सात दिन से अधिक न होगा, साथ ही एकांत
परिरोध की कालावधियों के बीच में उन्ही कालावधियों से अन्यून अंतराल होंगे ।
3[75. पूर्व दोषसिद्धि के पश्चात्् अध्याय 12 या अध्याय 17 के अधीन कतिपय अपराधों के लिए
वर्धित दण्ड-- जो कोई व्यक्ति---
(क) 4[भारत] में के किसी न्यायालय द्वारा इस संहिता के अध्याय 12 या अध्याय 17 के
अधीन तीन वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिए दोनों में से किसी भांति के कारावास से
दण्डनीय अपराध के लिए, 5।।।
1 1982 के अधिनियम सं0 8 की धारा 4 द्वारा अन्त:स्थापित ।
2 1982 के अधिनियम सं0 8 की धारा 5 द्वारा “एक वर्ष से कम नहीं हो” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
3 1910 के अधिनियम सं0 3 की धारा 2 द्वारा मूल धारा के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
4 विधि अनुकूलन आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची
द्वारा “ब्रिटिश भारत” के स्थान पर संशोधित हो कर उपरोक्त रूप में आया ।
5 1951 के अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा खंड (क) के अंत में “अथवा” शब्द और खंड (ख) का लोप
भारतीय दंड संहिता, 1860 12
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